जननी / पॉला अमान / प्रेमचन्द गांधी
“दूधों नहाओ और पूतों फलो!’’
सेब और सांपों की चमकदार जगहों में
बुदबुदाती-गूंजती है यही आवाज़
“क्या तुम्हारा परिवार है”
अजनबी पूछते हैं ऐसे
जैसे एक बच्चा ही इकलौता फल है
मेरे जैसी उम्र की एक स्त्री के लिए
और संभावित प्रसवन-शक्ति ही
दुनिया के लिए उसका आखि़री विश्वास है
जैसे-जैसे मेरे जन्मदिन चालीस की ओर लपकते हैं
मेरे भीतर हर मौसम में परिवार और
उसके गुणसूत्र नाचते रहते हैं लेकिन
एक छोटे और जिद्दी शिशु की परवरिश के लिए
मैं सुबह चार बजे नहीं उठ जाती हूं
जब मैं गीत लिखने लगती हूं
गर्भावस्था के सपने देखने लगती हूं
प्रेरणाओं से भरा फूला हुआ पेट
जो पैदा करता है स्वर और शब्दों को
मेरे दिल के बाहर निकाल फेंकता हुआ
चीख कर उन्हें अपनी ही जिंदगी देता हुआ
अब मैं कविताएं करती हूं
मैं गूंजते व्यंजनों से
बेतरह भर दूंगी इस दुनिया को,
मैं ख़तरों से अंजान लोगों की देहरियों पर
रक्तिम छवियां और
विलाप करते शब्द छोड़ जाउंगी
मैं बेशर्म दुस्साहसिकता की मांस-मज्जा
और उम्मीद की अस्थियों से भर देने वाली
रातों के रूपक पैदा कर छोड़ जाउंगी.