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जनम-जनम के जे वेदना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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जनम-जनम के जे वेदन ब
सेही हमरा जीवन के साधना बा।
जरे द हे प्रभु, जरे द
आपन आग तेजी से जरे द!
मत करऽ दया हे प्रभु, मत करऽ,
दुरबल जान के दया मत करऽ!!
ताप चाहे जतना होई हम सहेब
अग्नि प्रज्वलित होखे द।
ओह आग में जरे द हमार वासना
जर के भसम हो जाय सब वासना।।
तहार पुकार त अमोघ पुकार ह
तनि जोर से पुकारऽ
अइसन पुकारऽ जे सब बंधन टूट जाय
जवन चारू ओर से जकड़ले बा
से सब बंधन छूट जाय।
बाजे द अपना शंख के
गरज-गरज के बजे द
तनि जोर से फँूकऽ
तनि जोर से बजावऽ
अइसन बजावऽ जे हमार गर्व ढह जाय
नीन टूट जाय, तीव्र चेतना जाग जाय।।