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जनवरी छब्बीस / अज्ञेय

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(1)
आज हम अपने युगों के स्वप्न को
यह नयी आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।

आज हम अक्लान्त, ध्रुव, अविराम गति से बढ़े चलने का
कठिन व्रत धर रहे हैं
आज हम समवाय के हित, स्वेच्छया
आत्म-अनुशासन नया यह वर रहे हैं।

निराशा की दीर्घ तमसा में सजग रह हम
हुताशन पालते थे साधना का-
आज हम अपने युगों के स्वप्न को
आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।

(2)
सुनो हे नागरिक! अभिनव सभ्य भारत के नये जनराज्य के
सुनो! यह मंजूषा तुम्हारी है।

पला है आलोक चिर-दिन यह तुम्हारे स्नेह से, तुम्हारे ही रक्त से।
तुम्हीं दाता हो, तुम्हीं होता, तुम्हीं यजमान हो।
यह तुम्हारा पर्व है।

भूमि-सुत! इस पुण्य-भू की प्रजा, स्रष्टा तुम्हीं हो इस नये रूपाकार के
तुम्हीं से उद्भूत हो कर बल तुम्हारा
साधना का तेज-तप की दीप्ति-तुम को नया गौरव दे रही है!
यह तुम्हारे कर्म का ही प्रस्फुटन है।

नागरिक, जय! प्रजा-जन, जय! राष्ट्र के सच्चे विधायक, जय!
हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं : और मंजूषा तुम्हारी है
और यह आलोक तुम्हारे ही अडिग विश्वास का आलोक है।

किन्तु रूपाकार यह केवल प्रतिज्ञा है
उत्तरोत्तर लोक का कल्याण ही है साध्य :
अनुशासन उसी के हेतु है।

(3)
यह प्रतिज्ञा ही हमारा दाय है लम्बे युगों की साधना का,
जिसे हम ने धर्म जाना।

स्वयं अपनी अस्थियाँ दे कर हमीं ने असत् पर सत् की
विजय का मर्म जाना।

सम्पुटित पर हाथ, जिस ने गोलियाँ निज वक्ष पर झेलीं,
शमन कर ज्वार हिंसा का-
उसी के नत-शीश धीरज को हमारे स्तिमित चिर-संस्कार ने
सच्चा कृती का कर्म जाना।

साधना रुकती नहीं : आलोक जैसे नहीं बँधता।
यह सुघर मंजूष भी झर गिरा सुन्दर फूल है पथ-कूल का।
माँग पथ की इसी से चुकती नहीं।

फिर भी बीन लो यह फूल
स्मरण कर लो इसी पथ पर गिरे सेनानी जयी को,
बढ़ चलो फिर शोध में अपने उसी धुँधले युगों के स्वप्न की
जिसे हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।

आज हम अपने युगों के स्वप्न को यह नयी आलोक-मंजूषा
समर्पित कर रहे हैं।

इलाहाबाद, 26 जनवरी, 1950