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जनसंघर्ष / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
बिसात बिछी है
गोटियाँ नाच नहीं रही हैं
बादल घुमड़ रहे हैं
बरसात हो नहीं रही है
नदी के तेवर समझ नहीं आते
धार सागर से उलटी भाग रही है
केनवास बिछा पड़ा है
रंगों की प्यालियों में
तडक़ रही है
तस्वीरों की प्यास
जीभ पर टिकी कविता
सरक जाती है गले में
जन तैयार हो रहा है
फिर एक संघर्ष के लिए