भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जनान्तिक / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हें देख सकूँ-ऐसी आँख नहीं है मेरे पास, फिर भी,
गहरे विस्मय में, मैं-तुम्हारा एहसास पाता हूँ-
आज भी पृथ्वी में रह गयी हो।
कहीं सांत्वना नहीं पृथ्वी पर
बहुत दिनों से शान्ति नहीं
नीड़ नहीं
चिड़ियों की तरह, किसी हृदय के पार
पक्षी नहीं।

अगर मनुष्य के हृदय को जगाया न जाये तो उसे
सुबह की चिड़िया या कि बसन्त आया कहकर
कैसे पहचान करा सकता है कोई।
चारों ओर अनगिनत मशीनें, मशीन के देवता के पास
खुद को आज़ाद समझकर
मनुष्य हो गया है नियमहीन।

दिन की रोशनी की तरफ़ देखते ही दिखाई देता है
आहत होने, मरने और स्तब्ध रहने के सिवाय लोगों के लिए
और कोई जननीति नहीं रही।
जो-जिस देश में रहता है वहीं का व्यक्ति हो
जाता है। राज्य बनाता है-साम्राज्य की तरह
भूमि चाहता है। एक व्यक्ति की चाहत एक समाज
को तोड़कर
फिर उसी की प्यास लिए गढ़ता है।

उसे छोड़ किसी और राजनीति पर अमल करना हो तो
उसे उज्ज्वल समय óोत में खो जाना पड़ता है।
और वह óोत इस शताब्दी के भीतर नहीं
किसी के भीतर नहीं
इन्सान टिड्डियों जैसे चरते हैं
और मरते हैं।
ये सारे दिनमान मृत्यु, आशा, प्रकाश चुनने में
व्याप्त होना पड़ता है।
मन जाना चाह रहा है नवप्रस्थान की ओर...।
बगै़र आँख हटाये फिर अचानक किसी भोर के जनान्तिक
की आँखों में रहती है-एक और आभा
इस पृथ्वी की धृष्ट शताब्दी के हृदय में नहीं-
मेरे हृदय की अपनी चीज़ होकर रह गयी हो तुम।

तुम्हारे सिर के केश,
ताराविहीन व्यापक विपुल
रात की तरह, अपने एक निर्जन नक्षत्र को
पकड़े हुए हैं।

तुम्हारे हृदय की देह पर हमारे जन मानविक
रात नहीं है हमारे प्राणों में एक तिल
देर बीती रात की तरह हम लोगों का मानव जीवन
प्रचारित हो गया है, इसलिए
नारी
वही एक तिल कम
आर्तरात्रि हो तुम।

केवल अन्तहीन ढलान, मानव बना पुल
केवल अमानवीय नदियों
के ऊपर नारी कंठ तुम्हारी नारी तुम्हारी ही देह घिरे,
इसलिए उसके उसी सप्रतिम आमेय शरीर पर
हमारी आज की परिभाषा से अलग और भी औरतें हैं।
हमारे युग के अतीत का एक काल रह गया है।
अपने कंकड़ पर पूरे दिन नदी
सूर्य के सुर की वीथी फिर भी
एक क्षण के लिए भी नहीं पता चलता-पानी किस अतीत में मरा है।
पर फिर भी नई नाड़ी, नया उजला जल ले आती है नदी,
जानता हूँ, जानता हूँ मैं आदिनारी शरीरिणी की स्मृति को
(आज हेमन्त की भोर में) वह कब की अंधेरों की,
सृष्टि की भीषण अमा क्षमाहीनता में
मानव हृदय की टूटी नीलिमा में
बकुल पुष्प के वन में मन में अपार रक्त ढलता है
ग्लेशियर के जल में
असती न होकर भी स्मरणीय अनन्त ऊँचाई में
प्रिया को पीड़ा देकर, कहाँ नभ की ओर जाता है।