जन्नत से मण्टो का ख़त / राजा मेंहदी अली खान
1
मैं ख़ैरियत से हूँ लेकिन कहो कैसे हो तुम 'राजा'
बहुत दिन क्यों रहे तुम फ़िल्म की दुनिया में ग़ुम 'राजा'
ये दुनिया-ए-अदब से क्यों किया तुमने किनारा था
अरे ऐ बे-अदब क्या शेर से ज़र तुम को प्यारा था
जो नज़्में तुमने लिखीं थीं कभी जन्नत के बारे में
छपी थीं वो यहाँ भी 'खुल्द'<ref>स्वर्ग</ref> के पहले शुमारे<ref>अंक</ref> में
अदब की, शेर की दुनिया में तुम लौट आए, अच्छा है
अरे लिखवा लो नज़्में ! फिर से तुम चिल्लाए, अच्छा है
मगर फिर सोचता हूँ शेर लिखकर क्या करोगे तुम ?
ये अन्दाज़ा है मेरा गालिबा भूखे मरोगे तुम
ये बेहतर है किसी मिल में नौकरी कर लो
करो तुम शायरी तफ़रीह को और पेट यूँ भर लो
2
ये वह दुनिया है जिसने केस चलवाए अदीबों पर
बहुत की बारिशे-मश्के-सितम<ref>कहर बरपाना</ref> हम ख़ुशनसीबों पर
हुआ पैदा यहाँ जो नुक्त:दाँ<ref>आलोचक, कला मर्मज्ञ</ref> सदियों में, सालों में
मरा सड़कों पे वह या सड़ गया फिर हस्पतालों में
हों ज़िन्दा हम तो नाक और भौं चढ़ाकर नाम धरते हैं
यकायक एक दिन रोएँगे ये, बरसी मना लेंगे
ये गाज़ी हम शहीदों के लिए झण्डे उठा लेंगे
पढ़ेंगे मर्सिये, तड़पेंगे कर डालेंगे तकरीरें !
हमारा नाम करने की करेंगे लाख तदबीरें
हमारे बाल-बच्चों से न पूछेंगे कि कैसे हो
अदीबों-शायरों की क़द्रदानी हो तो ऐसी हो
करें क्या, न ये दुनिया न वो दुनिया अदीबों की
ये दुनिया है सज़ाओं की, वो दुनिया है खतीबों<ref>धर्मोपदेशक</ref> की
3
ज़मीं वाले हों कैसे भी वो हर दम याद आते हैं
जो दुनिया में उठाए वो हसीं ग़म याद आते हैं
ज़मीं वालों की सुहब्बत में कभी जो दिन गुज़ारे थे
कलम लिखने से कासिर<ref>असमर्थ</ref> है कि वो दिन कितने प्यारे थे
वह गलियाँ बायकला की दूर से मुझको बुलाती हैं
वहाँ के घर की यादें दिल में अब तक गुनगुनाती हैं
मुझे उस घर में सफ़िया की मुहब्बत याद आती है
मुझे जन्नत में भी वो घर की जन्नत याद आती है
जहाँ बच्चों की सूरत देखकर मैं मुस्कराता था
जहाँ आकर मैं दुनिया का हर ग़म भूल जाता था
बिला-नागा जहाँ हर शाम तुम मिलने को आते थे
जहाँ सब दोस्त आकर इक नई जन्नत बसाते थे
वो जन्नत लुट चुकी दिल में मगर आबाद है अब तक
फ़िज़ा उस घर की, वक्फ़ा-ए-मातम-ओ-फरियाद है अब तक
तुम अक्सर अब भी उस घर की सड़क पर से गुज़रते हो
वह सब कुच्छ लुट चुका बेकार तुम क्यों आहें भरते हो ?
यही उजड़ा हुआ घर फिर बसाना चाहता हूँ मैं
बुलन्दी छोड़कर पस्ती पे आना चाहता हूँ मैं
4
फलक पर मैं हूँ और तुम हो ज़मीं पर, जी नहीं लगता
जहाँ भी जाऊँ जन्नत में कहीं पर जी नहीं लगता
मैं चाहूँ भी तो अब दुनिया में वापस आ नहीं सकता
ख़ुशी बनकर तुम्हारी महफ़िलों में छा नहीं सकता
ज़मीं वालों से ऐ मलऊन<ref>दुष्टात्मा</ref> कब तोड़ेगे तुम नाते ?
बा-आसानी तुम आ सकते हो ज़ालिम, क्यों नहीं आते?
फलक से रोज़ मैं आवाज़ देता हूँ तुम्हे राजा
तुम्हे मालूम है राजा का है इक काफ़िया 'आजा'
ज़मीं से बोरिया-बिस्तर उठाओ और चले आओ
मेरे घर आओ, मेरा बेल बजाओ और चले आओ
करोड़ों मर गए चुपचाप लेकिन तुम नहीं मरते
जो मर्द नेक हैं जीने पे इतनी ज़िद नहीं करते
अगर कुछ उम्र बाक़ी है तो कर के ख़ुदकशी आओ
मैं हूँ जब तक यहाँ ख़ौफ़-ए-जहन्नुम से न घबराओ
मैं जुर्मे ख़ुदकशी को लड़-झगड़ के बख़्शवा लूँगा
तुम्हारा नाम जन्नत के हर पर्चे में उछालूँगा
चले आओ, चले आओ मुझे तुमसे मुहब्बत है
चले आओ, चले आओ यहाँ राहत ही राहत है
5
नहीं मैं ख़ुदगर्ज़ सुन लो तुम्हे मैं क्यों बुलाता हूँ
मेरे राजा तुम्हे मैं एक ख़ुशखबरी सुनाता हूँ
ख़बर ये गर्म थी कुछ दिन से जन्नत की हसीनों में
तुम्हारा नाम भी शामिल है जन्नत के मकीनों<ref>निवासियों</ref> में
ये सुनकर मैं नई आबादियों में दौड़ता आया
जो की इंक्वायरी तो इस ख़बर को मैने सच पाया
तुम्हारा महल भी देखा, बहुत ही ख़ूबसूरत है
ये समझो जगमगाते नूर और चीनी की मूरत है
तुम्हारी मुंतज़िर हूरें वहां बेख़्वाब रहती हैं
चमन की अंदलीबों<ref>बुलबुल</ref> की तरह बेताब रहती हैं
वह मुझसे पूछती रहती हैं बतलाओ वह कैसे हैं
फरिश्ते हैं कि शैतान हैं, वो ऐसे हैं कि वैसे हैं
तुम्हारी झूठी तारीफ़ों के पुल मैं बाँध देता हूँ
ख़ुदा से बाद में रो-रो मुआफी माँग लेता हूँ
जवाँ हूरें कहीं बूढ़ी न हो जाएँ, चले आओ
ये जंगल में मुहब्बत के न खो जाएँ चले आओ
उन्हें छुप-छुप के एक कम्बख़्त मुल्ला घूरा करता है
बचा लो इनको ऐ राजा कि वो उन सब पे मरता है
ये चंचल हिरनियाँ तकती हैं उसको भाग जाती हैं
मेरी हूरों को आकर हाल अपना सब सुनाती हैं
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बहुत जो याद आती हैं अब उनके नाम लेता हूँ
ज़मीं के दोस्तों के नाम कुछ पैग़ाम देता हूँ
बहिन इस्मत से कहना कब तलक फ़िल्में बनाओगी
ये हालत हो गई है आह क्या अब भी न आओगी
जा याद आ जाए इस्मत की तो शाहिद भी चला आए
वो ज़िद्दी आते-आती अपनी फ़िल्में सब जला आए
महिंदरनाथ को और कृश्न को भी ख़त ये दिखलाओ
जो मुमकिन हो तो दोनों भाइयों को साथ ले आओ
अगर दुनिया न आती हो मुवाफ़िक फ़ैज़-ओ-राशिद को
तो उनसे पूछकर लिखो, मैं भेजूँ अपने कासिद को
न आएँ गर तो कहना पतरस ने बुलाया है
तुम्हारी याद में 'तासीर' तड़पा तिलमिलाया है
तुम्हे हर रोज़ 'हसरत' और 'सालिक' याद करते हैं
तुम्हें दोनो अख़बारों के मालिक याद करते हैं
मुझे उम्मीद है ये सुन के दोनों दौड़े आएँगे
मेरी जन्नत में आकर इक नई जन्नत बसाएँगे
दुआ है या ख़ुदा सब ज़मीं के दोस्त मर जाएँ ।
ये जन्नत के चमन, ये घर, ये सड़कें उनसे भर जाएँ ।
० ० ० ०
मशहूर शायर और फिल्मी गीतगार राजा मेहदी अली खान और सादत हसन मण्टो की दोस्ती के अनेक क़िस्से प्रचलित हैं। मण्टो की बेवक़्त मौत ने उनके तमाम दोस्तों और उनके चाहने वालों को बुरी तरह से हिला कर रख दिया था। लेकिन उनके दोस्तों की जमात, चाहे वो कृश्न चंदर हो या इस्मत चुगतई या फ़िर राजा, सब के सब ज़माने से निराले लोग थे। न सब की तरह जीते थे और न सब की ही तरह मरे।
राजा मेहदी अली खान ने पहले तो मण्टो को याद करते हुए लिखा है मैं, मण्टो, काली सलवार और धुआँ और बाद को जब दिल बहलाने के बहाने न रहे तो एक दिन मण्टो की तरफ़ से ही ख़ुद को एक ख़त लिखकर जन्नत का बुलऊवा ले लिया। लगे हाथ ज़माने और ख़ासकर अदबी दुनिया की भी ख़बर ले डाली।
इस नज़्म में एक जगह बायकला (बम्बई का उप-नगर भायखला) का ज़िक्र आता है, जहाँ कभी मण्टो का घर होता था। साफ़िया उनकी बीवी थीं। शाहिद लतीफ़ इस्मत चुगतई के पति थे और जिस फ़िल्म 'ज़िद्दी' का ज़िक्र है, वे उसके डायरेक्टर थे।
'पतरस' से मुराद उर्दू के मशहूर हास्य-व्यंग लेखक पतरस बुखारी (1898-1958) से है। 'तासीर' से आशय डा. दीन मोहम्मद तासीर (1902-1950) से है जो नामवर शायर और अँग्रेज़ी के विद्वान थे। इसी तरह अब्दुल मजीद 'सालिक' (1894-1959) एक शायर होने के अलावा लेखक, पत्रकार और रेडियो ब्रोडकास्टर भी थे।
अजब सा संयोग है कि 1955 में मण्टो का जाना हुआ तो उनके ग्यारह बरस बाद 1966 में राजा भी वहीं जा पहुँचे। ग्यारह बरस और इन्तज़ार के बाद 1977 में कृश्न चन्दर भी कूच फरमा गए। उनके छोटे भाई महेन्द्रनाथ तो उनमें भी पहले वहाँ जा पहुँचे थे। शाहिद लतीफ़ तो 1967 में ही चल दिए थे अलबता इस्मत आपा ने इस जहान में अपने इन तमाम दोस्तों की नुमाइन्दगी 1991 तक क़ायम रखी।