भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जन्नत / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी महफूज़ और ख़ुशगवार थी
हमारी जन्नत ।
बेख़ौफ़ बहती थी नदियाँ,
फूल खिलते थे,
बर्फ़ की बारिश होती थी ।

परियों की तरह ख़ूबसूरत लड़कियाँ
और उन पर जान देनेवाले लड़के थे ।

निडर होकर आसमान में उड़ते थे परिन्दे
जहाँ चाहते थे, बनाते थे घोंसले ।

लोग एक दूसरे की मुहब्बत के
प्यासे थे ।

लेकिन जब से शैतान यहाँ दाख़िल हुए
मुकमल्ल फ़िज़ा ही बदल गई,
उनके हाथ में बन्दूकें और ज़ेहन में
ख़तरनाक मनसूबे थे,

वे लोगों को परिन्दों की तरह
मारते थे,
और हवा में बिखेर देते थे ।

उन्होंने इबादतगाहों पर कोई रहम
नही किया,
शुरू से वे परवरदिगार के ख़िलाफ़ थे ।

तालीमख़ानों पर टूटे उनके क़हर,
उन्होंने उन्हें से मिट्टी के ढेर में बदल दिया
ताकि बच्चे जाहिल बने रहें,
उनके दिमाग़ पर उनका हुक़्म
चलता रहे ।

जिन जँगलों में बसती थी हमारी ख़ुशियाँ
वे उनके पनाहगाह बन गए हैं,

शैतानों ने हमारी जन्नत को उजाड़ने का
पक्का बन्दोबस्त कर लिया है,
उनके इन क़ाफ़िलों में हमारे दुश्मन
बराबर के शरीक हैं ।

मैं अपनी उजड़ी जन्नत को देखकर
लाचार ख़ुदा को याद करता हूँ ।