जन्म दिन / हरेराम बाजपेयी 'आश'
जैसा की मीने पहले ही कहा था,
वही सच हो गया...
मेरे जन्म दिन, मेरी जन्म भूमि में ही,
आंसुओं की अपार वर्षा,
दर्द के सागर
बेचैनी की लहरों
और माँ के कृन्दन में
न जाने कहा खो गया...
हाँ, ज्योति ने याद दिलाया,
शुभकामनाओं का रस
डरते-डरते पिलाया।
पर अशकों ने उसे नमकीन कर दिया,
खुशी जो ढूंढ रहा था अंधेरे में,
कहते-कहते खुद ही गमगीन हो गया...
इस दिन (आज) लग रहा है की
जैसे दर्द, पीड़ा –अवसाद, करुणा,
सभी मेरे पास आये है,
देने बधाई।
और मुझे भूली-बिसरी
बचपने की बाते आद आयी...
’’दादा को गये आज नौ दिन हो गये,
संस्कारों के पालन में,
सबके सब केश विहीन हो गये,
आज ही माँ का श्रंगार श्वेत हुआ,
उनका इस अवस्था मेंम,
उजड़ा संसार देख, लगता मै अचेत हुआ,
सब जगह पीड़ा है,
सबके चेहरों पर अवसाद है,
लगता है जिन्दगीसच में बेबुनियाद है...
पति विहीन माँ से
कैसे कहूँ...
“माँ मुझे दूध पीला,
माँ मुझे प्यार कर,
माँ मुझे पलवे में बिठाकर घसीट,
मां अपने “हरियाँ” का जन्म दिन मना..
पर ....... आज मैं मूक हूँ,
बधिर हूँ, अंधा हूँ,
निरुपाय और असहाय होकर.....
देख रहा हूँ,
उसका छाती पीटना,
हाय-हाय की पुकार-
सुन रहा हूँ स्तब्ध होकर......
बेटा, बेटा होता है,
कभी काम दे सकता है,
पर पति परमेश्वर होता है,
जो सिर्फ एक बार मिलता है......
उसके खोने पर भी...
माँ यदि तुम्हें याद दिलाया जाये,
तो तुम अपना महानतम दुःख
भूल जाओगी
मुझ जैसे अभागे बेटे को
काले तिल डालकर, दूध पिलाओगी,
प्यार कर सकती हो,
दुआएँ दे सकती हो,
पर माँ मैं कहाँ से लाऊं
इतना साहस, इतनी शक्ति,
कि दादा को भूल जाऊँ...
अपने मूल को भूल जाऊँ.....
बताओं मैं कैसे अपना
जन्म दिन मनाऊँ......?