भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जन-समुन्दर / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अग्नि-पथ है, प्रज्वलित लपटें गगन में,
स्वार्थ, हिंसा, लोभ, शोषण, नाश रण में,
चल रहे हैं, पर, चरण युग के निरंतर,
साँस में हुंकारते मुठभेड़ के स्वर,
युग-विरोधी शक्तियों को दे चुनौती
हर क़दम पर, हर क़दम पर
बढ़ रहा दृढ़ जन-समुन्दर !

ये चरण युग के चरण हैं, कब झुकेंगे ?
ये शहीदों के चरण हैं, कब रुकेंगे ?
कौन-सा अवरोध आहत कर सकेगा ?
पंथ पर तूफ़ान आहें भर थकेगा !
ये करेंगे विश्व नव-निर्माण बढ़ कर
हर क़दम पर, हर क़दम पर
बढ़ रहा दृढ़ जन-समुन्दर !

नाश को ललकारती है युग-जवानी,
क्रांति का आह्नान करती आज वाणी,
प्राण में उत्साह नूतन ताज़गी है,
युग-युगों की साधना की लौ जगी है,
सामने जिसके ठहरना है असम्भव !
हर क़दम पर, हर क़दम पर
बढ़ रहा दृढ़ जन-समुन्दर !