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जन / इन्दु जैन
Kavita Kosh से
मैं उस दुनिया में हूँ जो
सहस्त्रों चाँद से पटी है
किसी सूरज की नहीं
दिल की आग से चमकते हैं
ठण्डे पत्थर
घने से घने जंगल के पैर
धुल रहे हैं उजाले से
कुछ छोटा नहीं, लघु नहीं
हर इनसान के पीछे परेशानियों का
जुलूस
अगुवा है फिर भी
मेरा दोस्त
मेरा पड़ोसी
और हर थकान से निचुड़ कर
निकलती हैं गोल हँसियाकार
तीन-चौथाई लेकिन ताज़ा आवाज़
मेरे घुटे गले में भी
फड़फड़ाती गाती रहती है कविता।