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जबसे होश संभाले हमने / नईम

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जब से होश संभाले हमने
घर में देखे घाटे के दिन,
     आए नहीं कभी खुश होकर,
     द्वारों सैर-सपाटे के दिन ।
देह धरे के दंड भुगतते रहे, पढ़े-अनपढों सरीखे,
हक़ पर डाके पड़े सरासर, मुँह पर बाँधे रहे मुसीके;
     शाबासी भी पीठ छोड़कर
     मुँह पर मारे चाँटे बैरिन।
गत जन्मों के पुण्य, हमें जो मिली आज ये मानुस देही,
पिंड राम-से रहे भटकते, भटक रही आत्मा वैदेही ।
     कभी नमक हो गया खत्म तो-
     कभी बिना ये आटे के दिन।
हम कतार में लगे रह गए, आते-आते अपना नम्बर,
धरती खिसक गई नीचे की, खत्म हो गई सभा, स्वयंवर ।
     ज़हर हो गई रात चाँदनी,
     सभ्य साँप के काटे के दिन ।
     जब से होश संभाले हमने
     घर में देखे घाटे के दिन ।