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जब-जब बंदूकों ने छापा अख़बार / दिनकर कुमार

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सामूहिक चीख़ शिलालेखों में समाहित हो गई
मुखपृष्ठ पर यशोगान की टपकने लगी लार
जब-जब बंदूकों ने छापा अख़बार
शव और श्मशान का बदल गया अर्थ
वैवाहिक दावत बन गई मृत्यु—
अधर में लटका हुआ सच
बिलबिलाता रहा और झूठ बार-बार
मुँह चिढ़ाता रहा—

सरकारी विकास के आँकड़ों की धुन पर
भरतनाट्यम करते रहे पेशेवर कलाकार
साहित्य की रीढ़ में आतंक चिपक कर
रह गया और बोल-चाल की भाषा में
बंदूक द्वारा तय किए गए सांकेतिक शब्द ही
संदर्भ न होने पर भी व्यवहृत होते रहे

बलात्कार और डकैती सांस्कृतिक समाचार
के अंतर्गत छपते रहे और राशिफल में
भय और आशंका का फलादेश कौंदता रहा
जब-जब बंदूकों ने छापा अख़बार
समय की दरकने लगी ठोस दीवार
और हिंसा की आड़ में दमकती हुई प्रकृति
भविष्य के खेत में अनजाने ही
उपजाती रही बंदूक के पौधे
वयस्क होते रहे बंदूक के पौधे
और एक दिन उनकी आपसी लड़ाई में
निर्णायक की भूमिका निभाता रहा अख़बार।