जब-जब हृदय को कुछ भी छूएगा / प्रवीण कुमार अंशुमान
न कहानी, न कविता
न किस्से में आता कोई हिस्सा,
ये सब थे बिल्कुल अनजान
जब आदमी था कभी बेजुबान;
पर शिद्दत से तब वह जीता था
बिना हिचक पूरा ज़िन्दगी को पीता था,
पर मैं कभी न कह सकूँगा
कि उनमें से कोई कभी ‘पहला’ भी था;
जिसने अपने ढंग से कुछ बोला भी था
आज भी बोलना सतत है चल रहा,
कोई मूक होकर हर क्षण सबकुछ यहाँ सुन रहा
पर देख आज तू आदमी की विवशता;
जब दिल थम सा है उठता
निकलती है एक गहरी चाह,
दिखती है तब बस एक ही राह
और फिर आँसुओं की कुछ बूँदें;
आदमी यहाँ वहाँ जिसे हर पल ढूँढें
जब छलकती हो वो कहीं पर,
आदमी स्तब्ध हो जाए बस वहीं पर,
और समझो तभी कोई बोलता है,
और जानो कि तभी कोई सुनता है;
आज भी ये सब निरंतर है चल रहा,
आदमी हर वक्त यहाँ बदल रहा;
आज भी ज़ारी है पहली बार बोलना,
आज भी ज़ारी है पहली बार सुनना,
ये बात कोई एक इतिहास नहीं,
या भविष्य की कोई आस भी नहीं
ये हर क्षण ही तो घटता है;
प्रतिपल ही बस यही बहता है
जब-जब हृदय को कोई भी कभी भी छुएगा,
आदमी बस मूक होकर अचानक बोल उठेगा ।