भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब आदमी / मुकेश जैन
Kavita Kosh से
जब आदमी
अपनी आदिमता में जीते होते हैं
वह चींख़ता है
भयानक
(तो)
रात और स्याह हो जाती है,
अपने बंद कमरे में
चादर को अपने चारों ओर
और कसकर लपेट लेता हूं
और स्वस्थ साँस लेने को
मुँह चादर से बाहर निकालने का
साहस नहीं होता
वह क्यों चींख़ता है
यह सवाल
बहरहाल
मैं
रात के अन्धेरे में नहीं पूछता
दिन के उजाले में सोचता हूँ।
फ़िलहाल
मेरे पास
इस सवाल का कोई ज़वाब नहीं
वह किसके विरुद्ध चींख़ता है
रचनाकाल : 02 दिसम्बर 1988