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जब उठकर सब चले गए तो / भोला पंडित प्रणयी

Kavita Kosh से
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जब उठकर सब चले गए तो, मन की बात किसे बतलाएँ !

कल तक जो थे साथ हमारे
आज बने हैं सब अनजाने
मन से बढ़ती मन की दूरी
डाल रही नफरत के दाने ।
टूट रहे सब नाते-रिश्ते, मन की बात किसे बतलाएँ !

अपनों के दिन भी क्या दिन थे
सबके सब अपने लगते थे,
सुख-दुःख में भी मिल-बैठकर
साथ-साथ सपने गढ़ते थे ।
अलग-अलग सपनों को लेकर
अब कैसे एक साज सजाएँ, मन की बात किसे बतलाएँ !!

बहुत कठिन है राह बनाना
अपनों से सिंगार सजाना,
संबंधों के विखरेपन को
प्यार-प्रीति की छाँव दिखाना ।
भावहीन गीतों से कैसे
हम अपने मन को बहलाएँ, मन की बात किसे बतलाएँ !!

पर्वत की ऊँचाई जैसी
मेरी मंशा ठहर गई है,
अपने बने पराए की अब
भ्रातृ-भावना बिखर गई है ।
मन में बैठी उन यादों को
अब कैसे जीवित दफनाएँ, मन की बात किसे बतलाएँ !!