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जब गुलाब इश्क़ का सीने में खिला देते हैं लोग! / धीरज आमेटा ‘धीर’

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जब गुलाब इश्क़ का सीने में खिला देते हैं लोग
एक सहरा को गुलिस्तान बना देते हैं लोग!
 
अपने दामन को भी ख़ुद आप जला देते हैं लोग,
जब भी तफ़रीक़ के शोलों को हवा देते हैं लोग!
 
दिल तो उनका है भरा खोट से लेकिन फिर भी,
"ये खुला ख़त है!" भला कैसे जता देते हैं लोग?
 
अहले दुनिया की ये अफ़साना-निगारी तौबा!
बात छोटी सी हो अफ़साना बना देते हैं लोग!
 
फिर से अपनों की शहादत पे उठायी है क़सम
क्या नयी बात है, क़समें तो भुला देते हैं लोग!
 
रात अश्कों से फ़साना ए मुहब्बत लिख कर,
शम्मा बुझते ही ये तहरीर मिटा देते हैं लोग!
 
सहल करते हैं वो अपने ही तमाशे की डगर
लब पे जब खामोशी की मुहर लगा देते हैं लोग!
 
"धीर" तुझ पर भी न सोहबत का असर हो आये,
सब पे अपना सा ही इक रंग चढ़ा देते हैं लोग!