जब तक बढ़े न पाँव / मुकुट बिहारी सरोज
जब तक कसी न कमर, तभी तक कठिनाई है
वरना, काम कौनसा है, जो किया न जाए ।
जिसने चाहा पी डाले सागर के सागर
जिसने चाहा घर बुलवाए चाँद-सितारे
कहने वाले तो कहते हैं बात यहाँ तक
मौत मर गई थी जीवन के डर के मारे ।
जब तक खुले न पलक, तभी तक कजराई है
वरना, तम की क्या बिसात, जो पिया न जाए ।
तुम चाहो सब हो जाए, बैठे ही बैठे
सो तो सम्भव नहीं भले कुछ शर्त लगा दो
बिना बहे पाई हो जिसने पार आज तक
एक आदमी भी कोई ऐसा बता दो ।
जब तक खुले न पाल, तभी तक गहराई है
वरना, वे मौसम क्या, जिनमें जिया न जाए ।
यह माना तुम एक अकेले, शूल हज़ारों
घटती नज़र नहीं आती मंज़िल की दूरी
लेकिन पस्त करो मत अपने स्वस्थ हौसले
समय भेजता ही होगा जय की मंज़ूरी ।
जब तक बढ़े न पाँव, तभी तक ऊँचाई है
वरना, शिखर कौन सा है, जो छिया न जाए