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जब तक / जया जादवानी
Kavita Kosh से
जब तक बारिश में भीगती हो
पंछियों की देह
जाते नहीं उड़कर किसी दूसरी शाख पर
तट तोड़कर आई नदी
नहीं सिमटती सहज अपनी सीमाओं में
सिर्फ़ ज्वार के दिनों ही
आतुर-अकुलाया समन्दर
उठता तोड़ अपनी देह की समूची बाधाएँ
जब तक न हो किसी का ऐसा आना
बदलेगी धूप हर क्षण अपना ठिकाना।