जब तट पर सब जम जाता है / बरीस सदअवस्कोय / अनिल जनविजय
जब तट पर सब जम जाता है,
और चाँद भी बढ़ता जाता है,
मैं घसियल मैदानों में घूमूँ,
जहाँ कोहरा मन भरमाता है ।
वहाँ सपन काँपते-छलकते हैं,
वहाँ भूत छवि से झलकते हैं,
वहाँ चाँदनी झर-झर झरती है,
उल्लुओं की चीख़ें बिखरती हैं ।
वहाँ घास भी सपने देखा करे,
और मेरे बिछोह-सी सर्र-सर्र करे,
वहाँ नज़र चाँद की, उल्लू की चीख़ें,
और रात भी थर-थर काँपा करे ।
1905
मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय
लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
Борис Садовской
Когда застынут берега...
Когда застынут берега
И месяц встанет величавый,
Иду в туманные луга,
Где никнут млеющие травы,
Где бродят трепетные сны,
Мелькают призрачные лики,
И там, в сиянии луны,
Внимаю сов ночные крики.
Понятны мне мечты лугов:
Они с моей тоскою схожи.
О взор луны! О крики сов!
О ночь исполненная дрожи!
1905