भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब तर्सील बटन तक पहूँची / हनीफ़ तरीन
Kavita Kosh से
कल तिरा नामा
जो मिलता था हमें
उस के अल्फ़ाज़ तले
मुद्दतें मानी के तशरीहों में
लुत्फ़ का सैल रवाँ रहता था
रातें बिस्तर पे
नशा ख़्वाब का रख देती थीं
इत्र में डूबी हुई धूप की पैमाइश पर
चाँदनी नींद को लोरी की थपक देती थी
ज़हन में सुब्ह ओ मसा
इक अजब फ़रहत-ए-नौ-रस्ता सफ़र करती थी
लेकिन अब क़ुर्बतें हैं बहम
समाअत को मगर
फ़ोन की घँटी को सुनने को तरसती ख़्वाहिश
मुनक़ता राबित पाने के लिए कोशाँ है
उँगलियाँ रहती हैं
एक एक बटन पर रक़्साँ
यही मामूल है मुद्दत से
मगर टेलीफोन
एक ख़ामोश सदा देता है
सिलसिला लम्हों का
सदियों सा बना देता है