भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब तलक चाँद पर कुछ जवानी रही / दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी'
Kavita Kosh से
जब तलक चाँद पर कुछ जवानी रही पानियों का बदन गुदगुदाता रहा
और नीला समन्दर तड़पता रहा, आह भरता रहा, कसमसाता रहा
एक तिनका चटानों से फूटा हुआ कितना जाँबाज़ था कितना जीदार<ref>साहसी</ref> था
रात बारिश की बूँदों से लड़ता रहा, मुस्कुराता रहा, क़द बढ़ाता रहा
जैसे आपस में उलझी हुई टहनियाँ बूँद पड़ते ही ख़ुद में लिपटने लगें
अपनी बाहों से अपना बदन भींचकर वो बड़ी देर तक कसमसाता रहा
एक ख़ूबानियों की हँसी के सिवा गाँव का सारा माहौल ख़ामोश था
घाटियों में अँधेरा महकता रहा , आप आते रहे, मैं बुलाता रहा
शब्दार्थ
<references/>