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जब तुम मेरे पास होती हो / साहिल परमार

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जब तुम मेरे पास होती हो,
आधी रात के गहरे अन्धेरे में
स्तनपान के लिए लालायित
बच्चे की आँखो की तरह छटपटातीं
मेरी आँखों को
छू लेता है मुँह-सवेरा
और हलके उजाले के घूँट
तृप्त कर देते हैं
मेरे सूखे अकुलाते हुए कण्ठ को।

जब तुम मेरे पास होती हो,
धधकती दोपहर की धूप के बीच
निकल आते हैं नीम के झुण्ड,
गिरे हुए पवन के चेहरे पर
छा जाती है
बच्ची की पोपली मुस्कान
और सड़क खोदते हुए मज़दूर जैसा
थका हुआ मेरा मन
एकदम हलका-फुलका
हो जाता है।

जब तुम मेरे पास होती हो
गोल-गोल चक्करघिन्नी पर से उतरे हुए
बच्चे के पाँव जैसे
लड़खड़ाते हुए मेरे विचारों को
हासिल होती है स्थिरता
और मैं
निश्चल हो कर
चल पाता हूँ
आगे
और आगे।

जब तुम मेरे पास होती हो
सिकुड़ा हुआ उफ़क
विस्तृत होता जाता है
एक के बाद एक
और खुलती जाती है
अनहद सुन्दरता से भरी
एक दुनिया
जिस के मालिक होते हैं
हम-अपने बिरादर – अपने लोग।

जब तुम मेरे पास होती हो,
मेरी झुग्गी बन जाती है
एक विराट महालय
और मच्छरों की गुनगुनाहटें
रचती हैं कई तर्ज
जिनकी मिठास
कोल्हापुरी गुड़ की भेली से भी
ज़्यादा होती है.

जब तुम मेरे पास होती हो,
धुआँती हुई लकड़ी में
आग लगाने
फूँक मार कर
हाँफते हुए मेरे फेफड़ों को
मिल जाती है नई ताज़ा हवा
और धुएँ से जलती आँखों से
निकलते आँसू
हो जाते हैं
रातरानी के फूल।

जब तुम मेरे पास होती हो,
होता है सब ऐसा ही,
इसीलिए प्रिय,
आसमान में कौंधती हुई बिजली को
गिरने से बचाने के लिए
पीछे-पीछे दौड़ते हुए
गर्जन जैसे
तेरे साहचर्य की मुझे
ख़ास ज़रूरत होती है।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार