जब दधि-रिपु हाथ लियौ / सूरदास
राग बिलावल
जब दधि-रिपु हाथ लियौ ।
खगपति-अरि डर, असुरनि-संका, बासर-पति आनंद कियौ ॥
बिदुखि-सिंधु सकुचत, सिव सोचत, गरलादिक किमि जात पियौ ?
अति अनुराग संग कमला-तन, प्रफुलित अँग न समात हियौ
एकनि दुख, एकनि सुख उपजत, ऐसौ कौन बिनोद कियौ ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे गहत ही एक-एक तैं होत बियौ ॥
भावार्थ :-- श्रीकृष्णचंद्र ने मथानी हाथ में ली, तब वासु कि नाग डरे (कहीं मुझे समुद्र-मन्थन में फिर रस्सी न बनना पड़े) दैत्यों के ,मन में शंका हुई ( हमें फिर कहीं समुद्र न मथना पड़े ) । सूर्य को आनन्द हुआ ( अब प्रलय होगी, अतः मेरा नित्य का भ्रमण बंद होगा)। कष्ट के कारण समुद्र संकुचित हो उठा (मैं फिर मथा जाऊँगा)। शंकर जी सोचने लगे कि (एक बार तो किसी प्रकार विष पी लिया, अब इस बारके समुद्र-मन्थन से निकले ) विष आदि ( दूषित तत्त्वों) को कैसे पिया जायगा । अत्यन्त प्रेम के कारण (प्रभु से पुनः मेरा विवाह होगा, यह सोचकर ) लक्ष्मी जी का शरीर पुलकित हो रहा है, उनका हृदय आनन्द के मारे शरीर में समाता नहीं (प्रेमाश्रु बनकर नेत्रों से निकलने लगा है)। सूरदास जी कहते हैं- प्रभु! आपने ऐसा यह क्या विनोद किया है, जिससे कुछ लोगों को दुःख और कुछ को सुख हो रहा है । आपके ,मथानी पकड़ते ही एक-एक करके यह कुछ दूसरा ही (समुद्र-मन्थन का दृश्य) हो गया है ।