जब प्रेत की तरह आता था सिर-दर्द / विपिन चौधरी
हम दोनों भाई-बहन का बचपन युवावस्था के कई क़दम नीचे था
और माँ इतनी युवा थी कि
कायदे से उस पाक अवस्था में
किसी भी दर्द को एक माँ के करीब आते हुए भी डरना चाहिए था
पर दर्द समेत चमड़े के जूतों के
आता था
और सीधा सिर पर वार करता था
माँ सिर-दर्द के कोड़ों से बचने को
करवटे बदलती
सिर पर दुपट्टे को कस कर बाँधती
ढेरों कप चाय पीती
और दर्द को दूर धकेलने की
नाकाम कोशिशों के बाद थक कर
सो जाती
हम बच्चे थे
इस स्थिति में
अपने छोटी हथेलियों से माँ का सिर दबाना ही जानते थे
घड़ी भर सिर दबाते-दबाते
वहीं माँ के अगल-बगल झपकियाँ मारते नींद में लुढ़क जाते
कुछ सालों बाद जब माँ के सिर का दर्द बूढा हो गया
तब उसने माँ का पिण्ड छोड़ा और
बरगद की जमींदोज़ जड़ों के नज़दीक
अपना बुढ़ापा काटने चला गया
कई सालो बाद मालूम हुआ
सिर का वह बदमाश दर्द कुछ और नहीं
पिता से माँ के अनसुलझे-बेमेल रिश्ते की पैनी गाँठ थी
यक़ीनन पिता से वह बेउम्मीदी वाले कच्चे रिश्ते के दूर जाने की साथ ही
वह बूढा दर्द भी कहीं नरक सिधार गया होगा
एक कच्ची-पक्की सीख के साथ कि
बेमेल रिश्ते के छोटे से छेद में घुस कर
एक दर्द अपना आसानी से अपना घर बना सकता है