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जब भी चाहूँ कुछ बुरा करना / अशेष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जब भी चाहूँ कुछ बुरा करना
मुझे टोक देता है
कोई तो है दोस्त अंदर अपना
जो मुझे रोक लेता है
जब भी चाहूँ कुछ अच्छा करना
मुझे टोक देता है
कोई तो है दुश्मन अंदर अपना
जो मुझे रोक लेता है
जब भी चाहूँ ग़लती पर माफी माँगूँ
मुझे टोक देता है
मेरा अभिमान बड़ा होने से
मुझे रोक देता है
जब भी चाहूँ किसी की तारीफ करूँ
मुझे टोक देता है
मेरा ईर्ष्यालू मन किसी को अपना
बनाने से रोक देता है
जब भी चाहूँ उसे भूल जाऊँ
टोक देता है
ज़रूर मुझे चाहता है दूर होने से
वो मुझे रोक देता है
ठीक से पहचानना है उसे जो
टोक देता है
कभी बुरे तो कभी अच्छे कामों से
वो मुझे रोक देता है