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जब भी मिलता है हँस के मिलता है / मोहम्मद इरशाद


जब भी मिलता है हँस के मिलता है
उस से तेरा ये कैसा रिश्ता है

आग आती नहीं नज़र लेकिन
ज़िस्म फिर भी मेरा क्यूँ जलता है

ऐसे रिश्तों में बँध गये वरना
मरना चाहें तो जीना पड़ता है

उसकी ख़ामोशी साफ कहती है
दिल में तूफाँ लिए इक दरिया है

वो जो बोला तो मुँह छुपाओगे
जब तक ख़ामोश है वो अच्छा है

मुझको ‘इरशाद’ ने कहा है ये ही
जान दे दूँगा हक पे वादा है