भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब रंगों की बात चलती है / शहंशाह आलम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब रंगों की बात चलती है

बहुत बुरे रंग में भी तुम ख़ास कुछ

ढूंढ़ लेती हो

तुमने बतलाया कि ऎसा हमारे

प्रेम की वज़ह से होता है


मैं तुम्हारी पसन्द के रंगों वाले

कपड़े और जूते पहन कर

कुमार गंधर्व के आडियो कैसेट खरीदने

रविवार की शाम को निकलता हूँ घर से


मैं जहाँ पर काम करता हूँ

वहाँ ऎसे रास्ते होकर पहुँचता हूँ

जिस रास्ते में

तुम्हारी पसन्द के रंग दिखते हैं

और जिस रास्ते के लोग

अच्छे रंगों के मुंतज़िर रहते हैं हमेशा


मैं जिस किराए के मकान में रहता हूँ

उसमें सिर्फ़ एक कील ठोकने की इजाज़त है

मैंने इस एक कील पर तुम्हारी तस्वीर टांग दी है

तुम यही चाहती थीं

जबकि तुमने मेरी तस्वीर रखने से

साफ़ इंकार कर दिया था


जितनी हवाएँ और दूसरी चीज़ें

जीने के लिए ज़रूरी होती हैं

तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद के रंग भी

ज़रुरी हो गए हैं


पावस के दिनों में हम दूर-दराज़ के

इलाक़े साथ-साथ घूमे थे

कश्तियों का सफ़र किया था

रथ पर बैठने से तुम डरती थीं

मैं चाकू से डरता था


अब मुझे चाकू से डर नहीं लगता

इसलिए कि

अपनी पसंद के रंगों को बचाए रखने के लिए

आदमी को चाकू से नहीं डरना चाहिए