भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब रक़ीबों का सितम याद आया / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
Kavita Kosh से
जब रक़ीबों का सितम याद आया
कुछ तुम्हारा भी करम याद आया
कब हमें हाजत-ए-परहेज़ पड़ी
ग़म न खाया था कि सम याद आया
न लिखा ख़त कि ख़त-ए-पेशानी
मुझ को हंगाम-ए-रक़म याद आया
शोला-ए-ज़ख्म सेऐ सैद-फ़गन
दाग़-ए-आहू-ए-हरम याद आया
ठहरे क्या दिल कि तेरी शोख़ी से
इजि़्तराब-ए-पैहम याद आया
ख़ूबी-ए-बख़्त कि पैमान-ए-अदू
उस को हंगाम-ए-क़सम याद आया
खुल गई गै़र से उल्फ़त उस की
जाम-ए-मय से मुझे जम याद आया
वो मेरा दिल है कि ख़ुद-बीनों को
देख कर आइना कम याद आया
किस लिए लुत्फ़ की बातें हैं फिर
क्या कोई और सितम याद आया
ऐसे ख़ुद-रफ़्ता हो ऐ ‘शेफ़्ता’ क्यूँ
कहीं उस शोख़ का रम याद आया