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जब सामने की बात ही उलझी हुई मिले / सगीर मलाल

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जब सामने की बात ही उलझी हुई मिले
फिर दूर देखती हुई आँखों से भी हो क्या

हाथों से छू के पहले उजाला करें तलाश
जब रौशनी न हो तो निगाहों से भी हो क्या

हैरत-ज़दा से रहते हैं अपने मदार पर
उस के अलावा चाँद सितारों से भी हो क्या

पागल न हो तो और ये पानी भी क्या करे
वहशी न हों तो और हवाओं से भी हो क्या

जब देखने लगे कोई चीज़ों के उस तरफ़
आँखें भी तेरी क्या करें बातों से भी हो क्या

यूँ तो मुझे भी शिकवा है उन से मगर ‘मलाल’
हालात इस तरह के हैं लोगों से भी हो क्या