जब से ये पताका फहरी है / भोला पंडित प्रणयी
जब से ये पताका फहरी है
ख़ूब गहमा-गहमी कचहरी है,
अब कोई किसी की क्या सुने
लगता यह दुनिया बहरी है ।
गत पाँच दशक तक क्या देखे
हर शाम गुज़ारी अनदेखे,
सब अनजाने ही तैर रहे
समझा न नदी यह गहरी है ।
सब अपने राग अलाप रहे
स्व सुख की माला जाप रहे,
हैं राग आलाप रहे भैरव
कहते श्रोता को ठुमरी है !
सब खोद रहे गड़े मुरदे
हैं दागनुमा उनके परदे,
सब खोज रहे चप्पे-चप्पे
मिलता न देश वो नगरी है ।
बह रही कहाँ अब स्वच्छ हवा
नकली मिलती मरीजों को दवा,
बंदूक तो कांधे पर लटकी
ख़ामोश खड़ा अब प्रहरी है ।
मौसम भी पूरा बदल गया
सब बनते नहले पर दहला,
अब छाँव मिले तो कहाँ मिले
यह समय भी खड़ी दुपहरी है !
अब क्यों विश्वास करे कोई
जब सबके मन विष बेलि बोई,
बन अपने आप मियाँ मिट्ठई
सच पूछें तो सब नंबरी है !