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जब से वह हो गयी इक छैल छबीले से अलग / रमेश 'कँवल'

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जब से वह हो गर्इ इक छैल छबीले से अलग
उसका दिल हो गया खुशियों के क़बीले से अलग

खुद शनासार्इ1 हो दरपन के वसीले2 से अलग
ग़ैर मुमकिन है कि हो दीप फ़तीले3 से अलग

रस भरे होटों की क़ुरबत4 का है ये लुत्फो-करम5
लब मेरे हो न सके प्यास के टीले से अलग

अब भी इमरोज़6 का सूरज है जवां और दिलकश
तुम कभी आओ तो माज़ी7 के तबीले8 से अलग

ज़र्द9 चेहरे की उदासी का है सैलाबे-रवां10
रंग अब कोर्इ नज़र में नहीं पीले से अलग

आतिशे-वक़्त ने छोड़ा न कोर्इ सब्ज़क लिबास
खुश्क खेतों में निशां हैं सभी गीले से अलग

गर तुझे फिक्र-ए-सुखन11 है तो 'कंवल’ आ इक दिन
अपने अशआर12 के महदूद13 क़बीले से अलग



1. स्वयंपरिचय 2. साधन, माध्यम 3. बत्ती 4. सामीप्य
5. आनंद, कृपा 6. वर्तमान 7. भूतकाल 8. अश्वशाला
9. पीला 10. गतिमयबाढ़ 11. कविताकाख्याल
12. शेरकाबहुवचन, कविता 13. सीमित।