Last modified on 30 नवम्बर 2022, at 22:23

जब से लगा रहने हृदय के साथ ही मेरा क़लम / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

जब से लगा रहने हृदय के साथ ही मेरा क़लम।
हर पंक्ति में लिखने लगा आम आदमी मेरा क़लम।
 
जब से उलझ बैठे हैं उसकी ओढ़नी, मेरा क़लम।
करने लगा है रोज़ दिल में गुदगुदी मेरा क़लम।

कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला,
दिन रात होता जा रहा है साहसी मेरा क़लम।

यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा,
दिन रात लिखता जा रहा बस प्यार ही मेरा क़लम।

उठता नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा,
क्या ख़त्म करने पर तुला है अफ़सरी मेरा क़लम।