जमाने से रिश्ता निभाना न आया।
उसे अपना दामन बचाना न आया॥
कयामत की शोखी थी बरपा बदन में
उसे रूप फिर भी सजाना न आया॥
निगाहों में शर्मो हया थी मचलती
मगर उसको चिलमन झुकाना न आया॥
पिये जा रही थी वह दर्दे जिगर को
करें क्या जो आँसू बहाना न आया॥
नहीं देखता कोई आँसू किसी के
ये समझी मगर चोट खाना न आया॥