भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज्यों भेद जाता भानु का कर अन्धकार-समूह को,
वह पार्थ-नन्दन घुस गया त्यों भेद चक्रव्यूह को।
थे वीर लाखों पर किसी से गति न उसकी रुक सकी,
सब शत्रुओं की शक्ति उसके सामने सहसा थकी।।
पर साथ भी उसके न कोई जा सका निज शक्ति से,
था द्वार रक्षक नृप जयद्रथ सबल शिव की शक्ति से।
अर्जुन बिना उसको न कोई जीत सकता था कहीं,
थे किन्तु उस संग्राम में भवितव्यता-वश वे नहीं।।
तब विदित कर्ण-कनिष्ठ भ्राता बाण बरसा कर बड़े,
‘‘रे खल ! खड़ा रह’’ वचन यों कहने लगा उससे कड़े।
अभिमन्यु ने उसको श्रवण कर प्रथम कुछ हँसभर दिया।
फिर एक शर से शीघ्र उसका शीश खण्डित कर दिया।
यों देख मरते निज अनुज को कर्ण अति क्षोभित हुआ,
सन्तप्त स्वर्ण-समान उसका वर्ण अति शोभित हुआ,
सौभद्र पर सौ बाण छोड़े जो अतीव कराल थे,
अतः ! बाण थे वे या भयंकर पक्षधारी व्याल थे।।
अर्जुन-तनय ने देख उनको वेग से आते हुए,
खण्डित किया झट बीच में ही धैर्य दिखलाते हुए,
फिर हस्तलाघव से उसी क्षण काट के रिपु चाप को,
रथ, सूत्र, रक्षक नष्ट कर सौंपा उसे सन्ताप को।
यों कर्म को हारा समझकर चित्त में अति क्रुद्ध हो,
दुर्योधनात्मक वीर लक्ष्मण या गया फिर युद्ध को।
सम्मुख उसे अवलोक कर अभिमन्यु यों कहने लगा,
मानो भयंकर सिन्धु-नद तोड़कर बहने लगा-
‘‘तुम हो हमारे बन्धु इससे हम जताते हैं तुम्हें,
मत जानियो तुम यह कि हम निर्बल बताते हैं तुम्हें,
अब इस समय तुम निज जनों को एक बार निहार लो,
यम-धाम में ही अन्यथा होगा मिलाप विचार लो।’’
उस वीर को, सुनकर वचन ये, लग गई बस आग-सी,
हो क्रुद्ध उसने शक्ति छोड़ी एक निष्ठुर नाग सी।।
अभिमन्यु ने उसको विफल कर ‘पाण्डवों की जय’ कही
फिर शर चढ़ाया एक जिसमें ज्योति-सी थी जग रही।
उस अर्धचन्द्राकार शर ने छूट कर कोदण्ड से,
छेदन किया रिपु-कण्ठ तत्क्षण फलक धार प्रचण्ड से,
होता हुआ इस भाँति भासित शीश उनका गिर पड़ा,
होता प्रकाशित टूट कर नक्षत्र ज्यों नभ में बड़ा।।
तत्काल हाहाकार-युत-रिपु-पक्ष में दुख-सा छा गया।
फिर दुष्ट दुःशासन समर में शीघ्र सम्मुख आ गया।
अभिमन्यु उसको देखते ही क्रोध से जलने लगा,
निश्वास बारम्बार उसका उष्णतर चलने लगा।
रे रे नराधम नारकी ! तू था बता अब तक कहाँ ?
मैं खोजता फिरता तुझे सब ओर कब से कहूँ यहाँ।
यह देख, मेरा बाण तेरे प्राण-नाश निमित्त है,
तैयार हो, तेरे अघों का आज प्रायश्चित है।
अब सैनिकों के सामने ही आज वध करके तुझे,
संसार में माता-पिता से है उऋण होना मुझे।
मेरे करों से अब तुझे कोई बचा सकता नहीं।
पर देखना, रणभूमि से तू भाग मत जाना कहीं।


कह यों वचन अभिमन्यु ने छोड़ा धनुष से बाण को,
रिपु भाल में वह घुस गया झट भेद शीर्ष-त्राण को,
तब रक्त से भीगा हुआ वह गिर पड़ा पाकर व्यथा,
सन्ध्या समय पश्चिम-जलधि में अरुण रवि गिरता यथा
मूर्च्छित समझ उसको समर से ले गया रथ सारथी,
लड़ने लगा तब नृप बृहद्बल उचित नाम महारथी।
कर खेल क्रीड़ासक्त हरि ज्यों मारता करि को कभी,
मारा उसे अभिमन्यु ने त्यों छिन्न करके तनु सभी।।
उस एक ही अभिमन्यु से यों युद्ध जिस जिस ने किया।
मारा गया अथवा समर से विमुख होकर जिया।
जिस भाँति विद्युतद्दाम से होती सुशोभित घन-घटा,
सर्वत्र छिटकाने लगा वह समर में शस्त्रच्छटा।।
तब कर्ण द्रोणाचार्य से साश्चर्य यों कहने लगा-
‘‘आचार्य देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा।
रघुवर-विशिख से सिन्धु सम सब सैन्य इससे व्यस्त हैं !
यह पार्थ-नन्दन पार्थ से भी धीर वीर प्रशस्त है !
होना विमुख संग्राम से है पाप वीरों को महा,
यह सोचकर ही इस समय ठहरा हुआ हूँ मैं यहाँ।
जैसे बने अब मारना ही योग्य इसको है यहीं,
सच जान लीजे अन्यथा निस्तार फिर होगा नहीं।’’
वीराग्रणी अभिमन्यु ! तुम हो धन्य इस संसार में,
शत्रु भी यों मग्न हों जिसके शौर्य-पारावार में,
होता तुम्हारे निकट निष्प्रभ तेज शशि का, सूर का,
करते विपक्षी भी सदा गुण-गान सच्चे सूर का।

तब सप्त रथियों ने वहाँ रत हो महा दुष्कर्म में -
मिलकर किया आरम्भ उसको बिद्ध करना मर्म में -
कृप, कर्ण, दु:शासन, सुयोधन, शकुनि, सुत-युत द्रोण भी;
उस एक बालक को लगे वे मारने बहु-विध सभी ||
अर्जुन-ताने अभिमन्यु तो भी अचल सम अविचल रहा,
उन सप्त राथियोंका वहाँ आघात उसने सब सहा |
पर एक साथ प्रहार-करता हो चतुर्दश कर जहाँ,
युग कर कहो, क्या क्या यथायथ कर सके विक्रम वहाँ ?
कुछ देर में जब रिपु-शरों से अश्व उसके गिर पड़े,
तब कूद कर रथ से चला वह, थे जहाँ वे सब खड़े |
जब तक शरीरागार में रहते ज़रा भी प्राण हैं,
करते समर से वीरजन पीछे कभी न प्रयाण हैं ||
फिर नृत्य-सा करता हुआ धन्वा लिए निज हाथ में,
लड़ने लगा निर्भय वहाँ वह शूरता के साथ में |
था यदपि अन्तिम दृश्य यह उसके अलौकिक कर्म का,
पर मुख्या परिचय भी यही था वीरजन के धर्म का ||
होता प्रविष्ट मृगेंद्र-शावक ज्यों गजेन्द्र-समूह में,
करने लगा वह शौर्य त्यों उन वैरियों के व्यूह में |
तब छोड़ते कोदण्ड से सब ओर चंड-शरावली,
मार्तण्ड-मण्डल की उदय की छवि मिली उसको भली ||
यों विकत विक्रम देख उसका धैर्य रिपु खोने लगे,
उसके भयंकर वेग से अस्थिर सभी होने लगे |
हँसने लगा वह वीर उनकी धीरता यह देख के,
फिर यों वचन कहने लगा तृण-तुल्य उनको लेख के -

"मैं वीर तुम बहु सहचरों से युक्त विश्रत सात हो,
एकत्र फिर अन्याय से करते सभी आघात हो |
होते विमुख तो भी अहो! झिलता न मेरा वार है,
तुम वीर कैसे हो, तुम्हें धिक्कार सौ-सौ बार है |"
उस शूर के सुन यों वचन बोला सुयोधन आप यों -
"है काल अब तेरा निकट करता अनर्थ प्रलाप क्यों?
जैसे बने निज वैरियों के प्राण हरना चाहिए,
निज मार्ग निष्कंटक सदा सब भाँति करना चाहिए ||"
"यह कथन तेरे योग्य ही है," प्रथम यों उत्तर दिया,
खर-तर-शरों से फिर उसे अभिमन्यु ने मूर्छित किया |
उस समय ही जो पार्श्व से छोड़ा गया था तान के,
उस करना-शर ने चाप उसका काट डाला आन के ||
तब खींचकर खर-खड्ग फिर वह रत हुआ रिपु-नाश में,
चमकीं प्रलय की बिजलियाँ घनघोर-समराकाश में |
पर हाय! वह आलोक-मण्डल अल्प ही मण्डित हुआ,
वंचक-विपक्षी वृन्द से वह खड्ग भी खण्डित हुआ |
यों रित्त-हस्त हुआ जहाँ वह वीर रिपु-संघात में,
घुसने लगे सब शत्रुओं के बाण उसके गात में |
वह पाण्डु-वंश प्रदीप यों शोभी हुआ उस काल में -
सुंदर सुमन ज्यों पड़ गया हो कंटकों के जाल में ||
संग्राम में निज-शत्रुओं की देखकर यह नीचता
कहने लगा वह यों वचन दृग युग-करों से मींचता -
"नि:शस्त्र पर तुम वीर बनकर वार करते हो अहो!
है पाप तुमको देखना भी पामरों! सम्मुख न हो!!

दो शस्त्र पहले तुम मुझे, फिर युद्ध सब मुझसे करो,
यों स्वार्थ-साधन के लिए मत पाप-पथ में पड़ धरो |
कुछ प्राण-भिक्षा मैं न तुमसे माँगता हूँ भीति से,
बस शस्त्र ही मैं चाहता हूँ धर्म-पूर्वक नीति से ||
कर में मुझे तुम शस्त्र देकर फिर दिखाओ वीरता,
देखूँ, यहाँ मैं फिर तुम्हारी धीरता, गंभीरता |
हो सात क्या, सौ भी रहो तो भी रुलाऊँ मैं तुम्हें,
कर पूर्ण रण-लिप्सा अभी क्षण में सुलाऊँ मैं तुम्हें ||
नि:शस्त्र पर आघात करना सर्वथा अन्याय है |
स्वीकार करता बात यह सब शूर-जन समुदाय है |
पर जानकर भी हा! इसे आती न तुमको लाज है,
होता कलंकित आज तुमसे शूरवीर-समाज है ||
हैं नीच ये सब शूर पर 'आचार्य!" तुम आचार्य हो,
वरवीर-विद्या-विज्ञ मेरे तात-शिक्षक आर्य हो |
फिर आज इनके साथ तुमसे हो रहा जो कर्म है,
मैं पूछता हूँ, वीर का रण में यही क्या धर्म है ?
या सत्य है कि अधर्म से मैं निहित होता हूँ अभी,
पर शीघ्र इस दुष्कर्म हा तुम दण्ड पाओगे सभी |
क्रोधाग्नि ऐसी पाण्डवों की प्रज्ज्वलित होगी यहाँ,
तुम शीघ्र उसमें भस्म होगे तूल-तुल्य जहाँ तहां ||
मैं तो अमर होकर यहाँ अब शीघ्र सुरपुर को चला,
पर याद रखो, पाप का होता नहीं है फल भला |
तुम और मेरे अन्य रिपु पामर कहावेंगे सभी,
सुनकर चरित मेरा सदा आँसू बहावेंगे सभी ||
हे तात! हे मातुल! जहाँ हो प्रणाम तुम्हें वहीं,
अभिमन्यु का इस भाँति मरना भूल न जाना कहीं!"
कहता हुआ वह वीर यों रण-भूमि में फिर गिर पड़ा,
हो भंग श्रृंग सुमेरु गिरी का गिर पड़ा हो ज्यों बड़ा ||
इस भाँति उसको भूमि पर देखा पतित होते यदा,
दु:शील दु:शासन ताने ने शीश में मारी गदा |
दृग बंद कर वह यशोधन सर्वदा को सो गया,
हा! एक अनुपम रत्न मानो मेदिनी का खो गया ||

हे वीरवर अभिमन्यु! अब तुम हो यदपि सुर-लोक में,
पर अंत तक रोते रहेंगे हम तुम्हारे शोक में |
दिन-दिन तुम्हारी कीर्ति का विस्तार होगा विश्व में,
तब शत्रुओं के नाम पर धिक्कार होगा विश्व में ||