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जय और क्षय / विमल राजस्थानी

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जय ! फूल समझ कर सीनों पर गोलियाँ झेलने वालों की
जय !! राष्ट्र-मुक्ति के हेतु रक्त का फाग खेलने वालों की

सागर नतमस्तक चरणों पर
नगपति भी शीश झुकाता है
जिनके बलिदानों के फल से
गर्वित झण्डा लहराता है

क्या हुआ कि माँगें धुलीं कई
चूडि़याँ रूपहली फूट गयीं
इतना तो हुआ कि जननी की-
बेडि़याँ झनझना टूट गयीं
जय हो ! जय हो !! स्वातंत्र्य-यूथ पर शीश चढ़ाने वाले की
वन्दना सहस्त्रों बार व्योम में ध्वजा उड़ाने वालों की

मैं तो हूँ भावों का स्वामी
भावांजलि अर्पण करता हूँ
आँसू के मिस, जब-तब उर के-
लोहू से तर्पण करता हूँ
पर जिनको सिंहासन सौंपा
जिनके सिर तुमने धरा ताज
वे स्वार्थ-सिंधु में तैर-डूब
हा ! भूल गये हैं तुम्हें आज

क्षय ! आज तुम्हारी आहुतियों को ढाल बनाने वालों की
क्षय !! नाम तुम्हारा बेच आज टकसाल बनाने वालों की

तुम देख रहे हो साश्रु आज
बापू ! बादल का हृदय चीर
कोठियाँ भरी इन धनिकों की
भूखों-नंगों का नयन-नीर

दाने-दाने को आज हाय !
भूखे मानव बिललाते हैं
पर ये हत्यारे तो अपनी
गोदाम भरे ही जाते हैं
क्षय हो ! मनुष्य को भूखा रख कर भोग लगाने वालों की
ईश्वर पर, उसके ही बेटों का लहू चढ़ाने वालों की

रोको विनाश की आँधी को
तूफान उमड़ने वाला है
यह कोप शहीदों का, तुम पर
बन वज्र घहरने वाला है

उनके आँसू की एक बूँद-
से घड़ा पाप का फूटेगा
वह घड़ी नहीं है दूर कि जब
मानव मानव को लूटेगा

क्षय हो ! इन अधम शोषकों की, संहार बुलाने वालों की
जय हो !! विनाश को रौंद, सृजन का शंख बजाने वालों की