जय शस्यश्यामला वसुन्धरा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
वेदों की जननी महामही, जय शस्यश्यामला वसुन्धरा!
तेरा अभिनन्दन कर प्राची
हो उठती है अनुरागवती,
तुझको प्रणाम करती जगती
हे जगती! जग की महासती!
आरती निशापति करता है
तारों की दीप असंख्य जला,
पग-नीरज की रज धोता है
सागर संयम में ढला-पला।
चन्द्रिका स्नात तेरा अंचल प्रिय लगता सबको, सुधाकरा!
संस्कृत संस्कृति गुणवती हुई
गायत्री, गंगा, गीता से,
नारी गरिमा शिखरस्थ हुई
दमयन्ती, राधा, सीता से।
यमुना लहरे मुरलीधर की
मुरली की याद कराती है।
धरती के कण-कण में मानो
चेतना नयी उपजाती है।
पर पीड़ा पर तुम द्रवित सदा जय करूणामयि! जय दयाकरा
कर रही शान्ति का पाठ साँझ
मोहक सिन्दूरी अंचल में,
भैरवी गा रहे द्विज मण्डल
शाखाओं पर निज संकुल में।
हिमवन्त आपके गौरव का है
अक्षर अटल शिखर शोभन
गंगोत्री यमुनोत्री मानो
संस्कृतियों के जीवन्त सदन।
गा रही भारती भारत की जय पुण्य भूमि! जय शुभंकरा!
ऋषियों मुनियों की तपस्थली
तप, त्याग, तेज से प्राणवन्त,
धीरों वीरों के पौरूष से
संरक्षित जीवन प्रभावन्त।
नदियों की कल कल गुंजन से
झरनों से कोकिल कूजन से।
भौरों के मधुरिम गुंजन से,
देवों के वैदिक पूजन से -
हैं गूँज रहा कण कण पावन, कण-कण प्रणम्य जय ऋतम्भरा
जब तक हिम तिलक भाल पर है
जब तक चरणों में सागर है
जब तक आकाश रहे सिर पर
जब तक शशि और दिवाकर है।
जब तक साँसों का दिया जले
जब तक जीवन है हरा-भरा,
जब तक धरती से अम्बर तक
गूँजती रहे लय मनोहरा -
जय आर्यभूमि! जय भरतभूमि! जय देवभूमि! जय ज्ञान धरा!