भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जय हो स्वदेश की मुक्त धरा / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जय हो, स्वदेश की मुक्त धरा,
जय हो, स्वदेश के मुक्त गगन।
जय हो, स्वतंत्रता के शिशु रवि,
जय-जय नवीन स्वातंत्र्य किरण

जय हो, उनकी जो उछल चढ़े,
फाँसी के तख्ते पर हँस कर।
जय हो, उन वीर सपूतों की,
जो चढ़ा गये वेदी पर सर।

जये हो उन वीर बाँकुड़ो की,
जय हो, उन मिटने वालों की।
इस पुण्य-भूमि के लिए प्राण-
न्यौछावर करने वालों की

घर-घर झण्डे का लहराना,
जिनके बलिदानों का फल है।
उनके चरणों पर तीस कोटि
जन-गण के आँखों का जल है।

जय हो, जंजीरें टूक हुईं,
हथकडि़याँ मा की टूट गयीं
जय हो, कि स्वर्ण-पींजरे की-
बन्दी विहंगिनी छूट गयी।

पर पंख-कटी चिडि़या बोलो,
कैसे कुछ भी उड़ पायेगी।
जिसका है हृदय विदीर्ण भला-
वह क्या कूकेगी, गायेगी।

पर रे मन! तू निराश मत हो,
फिर नये पंख उग आयेंगे।
जो आज रो रहे हैं वे ही,
तो कल कूकेंगे, गायेंगे।

मंगल-मुहूर्त, आनन्द-लग्न,
मत रोको, हमको गाने दो।
आँसू तो बहुत बहाये हैं,
रोको न तनिक मुस्काने दो

आओ हे किन्नरियो ! आओ
नाचो नव मंगल-गान करो
हे स्वर्गवासियो, आशिष दो,
कुछ ऐसा हे भगवान ! करो।

हम नयी शक्ति से फिर अपने,
उजड़े भव का निर्माण करें।
इस तीस कोटि के जन-गण का,
उत्थान करें, कल्याण करें।

उस वृद्ध तपी के पद चिह्नों
पर प्यारा हिंदुस्तान चले।
भूला-भटका भाई आकर,
कल का, हँस-हँस कर गले मिले।

फिर भारत मा के कटे हाथ,
दोनों आ-आकर जुड़ जायें।
माता के दोनों हाथों में-
फिर यही ‘तिरंगा’ लहराये।