भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जरा पिला दो पानी / विष्णुकांत पांडेय
Kavita Kosh से
चींटी ने वह चाँटा मारा
गिरा उलटकर हाथी,
सरपट भागे गदहे-घोड़े
भागे सारे साथी।
धूल झाड़कर हाथी बोला-
‘माफ करो हे रानी-
अब न कभी लड़ने जाऊँगा
जरा पिला दो पानी।’