जरा व्याध-2 / अज्ञेय
क्या यही है पुरुष की नियति
कि बार-बार लोभ-वश
-किन्तु जो जीवन-कर्म है (जो नियति है!)
उसे कैसे माना जाय लोभ?-
जाना मृग की टोह में
और मर्माहत कर आना
युग-युग के मृगांक को!
कौन शरविद्ध हुआ, कृष्ण?
तुम, मेरे नारायण, कि मैं,
नियति का अभागा आखेट, अहेरी मैं!
नहीं, नहीं, नहीं सहा जाता यह बोझ
क्षमा का! क्यों नहीं यह भी नियति है
कि व्याध का भी
तत्काल वध हो घातीवत्!
जरा तो देवघाती है!
कवि ने तो पक्षीघाती को भी दे दिया था शाप तुरत,
मानव था कवि, करुण था, क्रोधी था;
और तुम, नारायण मेरे,
दाता, जिसे सारा जग वन्दता है,
दे न सके अपनी अजस्र उदारता में मुझे
एक शाप तक!
यही है शाप क्या? कि अपराधी उपेक्षित हो,
दंड भी न पाये, पग-पग पर
रचे जाय अपने ही लिए आग तूस की
जला करे तिल-तिल-किन्तु देवता
तुमने तो क्षमा दी थी मुझे-यही क्या क्षमा है?
दिया है मैं ने अपने को वन को पंछियों को
मृगों को उरगों, पतंगों को!
डँसें मुझे मारें, नोचें,
फाड़ कर भक्ष लें!
देखो, वनचारियो,
बन्धुओ, निस्तारको, मेरे मोक्षदो!
यही देवहन्ता जरा व्याध आज
वध्य है तुम्हारा।
नहीं, नहीं, नहीं!
मेरा एक ही शरण्य है!
वही जिसे मैं ने शरविद्ध किया है!
कृष्ण, मैं ने मारा नहीं तुम्हें, मैं ने
अपने को बाँधा है तुम्हारे साथ-
और तुम मेरे साथ बँधे हो-
मेरे साथ! व्याध के!
यही क्या नियति है?
अगस्त, 1981