भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जरूरी काम / रविकान्त
Kavita Kosh से
बढ़ रहा है हमारे खेतों में
न जाने क्या-क्या
हमारी निगरानी में
न जाने कैसी फसल पक रही है
दुःख रोपे जा रहे हैं
नई-नई चमकीली, चिकनी गाँठें
अपने अत्याधुनिक पेंचों के साथ
बहुमत को डरा रही हैं
सींची जा रही हैं सभी चीजें
हार की परिस्थितियाँ परिपक्व हो रही हैं
और
न जाने कहाँ व्यस्त हैं हम