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जला के मशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले / मजरूह सुल्तानपुरी

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जला के मशअ़ले-ए-जां हम जुनूं सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले

दयारे-शाम नहीं, मंज़िले-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले, न रात चले

हुआ असीर कोई हमनवा तो दूर तलक
ब-पासे-तर्ज़े-नवा हम भी साथ साथ चले

सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले

बचा के लाये हम ऐ यार फिर भी नक़दे-वफ़ा
अगरचे लुटते हुए रहज़नों के हाथ चले

फिर आई फसल की मानिंदे बर्गे-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासिलात चले

बुला ही बैठे जब अहले-हरम तो ऐ 'मजरूह'
बगल में हम भी लिए इक सनम का हाथ चले