जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक में है / आलम खुर्शीद
जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक<ref>दर्शन, निरीक्षण</ref> में है
कोई तासीर<ref>प्रभाव, असर</ref> तो मौजूद मिरी ख़ाक में है
खेंचती रहती है हर लम्हा मुझे अपनी तरफ़
जाने क्या चीज़ है जो पर्दा-ए-अफ़्लाक<ref>आसमानों का नक़ाब, अफ़्लाक= फ़लक, आसमान का बहुवचन</ref>
कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
कूज़ा-गर<ref>कुम्हार, मिट्टी के बर्तन बनाने वाला</ref> कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है
कैसे ठहरूँ कि किसी शहर से मिलता ही नहीं
एक नक़्शा जो मिरे दीदा-ए-नमनाक<ref>आँसू भरी आँखें</ref> में है
ये इलाका भी मगर दिल ही के ताबे<ref>वशीभूत, आधीन</ref> ठहरा
हम समझते थे अमाँ<ref>सुरक्षा, हिफाज़त, पनाह</ref> गोशा-ए-इदराक<ref>बोध, कोना</ref> में है
क़त्ल होते हैं यहाँ नारा-ए-एलान के साथ
वज़अ-दारी<ref>परंपरा</ref> तो अभी आलम-ए-सफ़्फ़ाक<ref>बेरहम, अत्याचारी दुनिया</ref> में है
कितनी चीज़ों के भला नाम तुझे गिनवाऊँ
सारी दुनिया ही तो शामिल मिरी इम्लाक<ref>स्वामित्व, वस्तुओं का मालिक बनाना</ref> में है
रायगाँ<ref>व्यर्थ, बरबाद</ref> कोई भी शै होती नहीं है 'आलम'
ग़ौर से देखिये क्या क्या ख़स-ओ-ख़ाशाक<ref>सूखी घास और कूड़ा-करकट</ref> में है