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जल रहा अलाव / शशि पाधा
Kavita Kosh से
जल रहा अलाव आज
लोग भी होंगे वहीं
मन की पीर –भटकनें
झोंकते होंगे वहीं
कहीं कोई सुना रहा
विषाद की व्यथा कथा
कोई काँधे हाथ धर
निभा रहा चिर प्रथा
उलझनों की गाँठ सब
खोलते होंगे वहीं
गगन में जो चाँद था
कल जरा घट जाएगा
कुछ दिनों की बात है
आएगा , मुस्काएगा
एक भी तारा दिखे तो
और भी होंगे वहीं
दिवस भर की विषमता
ओढ़ कोई सोता नहीं
अश्रुओं का भार कोई
रात भर ढोता नहीं
पलक धीर हो बंधा
स्वप्न भी होंगे वही