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जवानी / मख़दूम मोहिउद्दीन

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बेदार<ref>जागी</ref> हुईं मेहर<ref>प्रेम</ref>-ए-जवानी की शुआएँ<ref>ज्योति</ref>
पड़ने लगीं आलम की उसी सिम्त निगाहें ।
ख़ाबीदा<ref>सोए हुए</ref> थे जज़बात बदलने लगे करवट
रु-ए शरर-ए तूर<ref>तूर पर्वत के अग्निमय मुख से</ref> से हटने लगा घूँघट ।
भरने लगे बाजू तो हुए बन्द-ए क़बा<ref>चोली के बँधन</ref> तंग
चढ़ने लगा तिफली<ref>बचपन</ref> पे जवानी का नया रंग ।
साग़र की ख़नक बन गई उस शोख़ की आवाज़
बरबत<ref>एक साज़</ref> को हुई गुदगुदी या जाग उठे साज़ ।
आज़ा<ref>अंग</ref> में लचक है तो इक लोच कमर में
आसाब<ref>अंगों में</ref> में पारा है तो बिजली है नज़र में ।
आने लगी हर बात पे रुक-रुक के हँसी अब
रंगीन तमउज<ref>मौज़ें मारना</ref> के गिराँबार<ref>बोझ के नीचे दबे हुए</ref> हुए लब ।
वो देख बदलते हुए पहलू कोई उट्ठा
वो देख बिगाड़े हुए गेसू कोई उट्ठा ।
वो देख के किस गुल की महक फैली है हर सूँ
वो देख के कौन रवाँ<ref>कौन जाता है</ref> बजते हैं घूँघरू ।
कम्बख़्त अजल<ref>मौत</ref> थी ये जवानी की क़बा<ref>चोली</ref> में
टुकड़े हैं किसी दिल के भी नक़्शे कफ़े पा<ref>हाथ-पैर</ref> में ।

शब्दार्थ
<references/>