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जवान होती लड़की / मानबहादुर सिंह
Kavita Kosh से
एक जवान होती लडकी
केवल देह होती है
सावन चढ़े आकाश के नीचे
पूरा भूगोल होती है
एक उमड़ी-सी नदी -- डगमगाती नाव को
भरमाती भँवर होती है
दूरागत लोक धुनि की ओर
ठिठकी साँस होती है
आयु के लम्बे बरस के बीच
महकी फगुनाहट धूप होती है
धरती के उमगते वक्ष पर
बौखलाई सौन्धी गन्ध होती है
चारों युगों के बीच कलियुग
कलियुग के बीच कालीदास होती है
बोलने की सब विधाओं में
कविता गीत होती है
कविता के लजीले रूप गौरव मे
छायावाद होती है
हड्डियों के चौखटे मे बन्द
पलकों के कपाटों बीच
उझकती रोशनी की कम्प होती है
घर की प्यास होती है
एक भूखे और नंगे देश की
राजधानी में
कैबरे की नाच होती है