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जहाँ के रिवाजों की ऐसी की तैसी / समीर परिमल
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जहाँ के रिवाजों की ऐसी की तैसी
ज़मीं के ख़ुदाओं की ऐसी की तैसी
जो कहते रहे हैं गुनहगार हमको
वो सुन लें, गुनाहों की ऐसी की तैसी
जवाबों की कोई कमी तो नहीं पर
तुम्हारे सवालों की ऐसी की तैसी
मेरे दिल तड़पकर यूँ ही जान दे दे
तेरी सर्द आहों की ऐसी की तैसी
मसीहा की रग-रग में है ज़ह्र इतना
दवाओं, दुआओं की ऐसी की तैसी
ज़मीं प्यास से मर रही है तड़पकर
गरजती घटाओं की ऐसी की तैसी
बनाएंगे हम राह ख़ुद आसमां तक
सभी रहनुमाओं की ऐसी की तैसी
ग़ज़ल को भी हिन्दू-मुसलमां में बांटें
अदब की दुकानों की ऐसी की तैसी
चराग़े-मुहब्बत जलाते रहेंगे
मुख़ालिफ़ हवाओं की ऐसी की तैसी