Last modified on 5 अप्रैल 2014, at 00:27

जहाँ पवित्र भाव हैं रसमय / हनुमानप्रसाद पोद्दार

जहाँ पवित्र भाव हैं रसमय, जहाँ परस्पर निर्मल प्रेम।
वहाँ न चिन्ता-भय-विषाद कुछ, नित्य प्रकट निर्योगक्षेम॥
देना नहीं शेष है कुछ भी, नहीं प्राप्त करना कुछ शेष।
प्रिय-सुख-वाछा एक, नहीं मन भुक्ति-मुक्ति-‌इच्छाका लेश॥
लाभ-हानि, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मान तथा अपमान।
रहा न को‌ई द्वन्द्व प्रियाप्रिय, रहती सबमें दृष्टिस्न् समान॥
करते नित्य ललित लीला प्रिय लीलामय, ले मुझको संग।
मैं भी पृथक्‌ न कभी, नित्य हूँ उनकी ही अभिन्न निज अङङ्ग॥