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जहाँ बच्चे न हों वो सूना घर अच्छा नहीं लगता / रंजना वर्मा

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जहाँ बच्चे न हों वो सूना घर अच्छा नहीं लगता
न सच की राह जाये वो बशर अच्छा नहीं लगता

न हों फल फूल भी तो क्या रहे पत्तों पे हरियाली
किसी भी बाग़ में सूखा शज़र अच्छा नहीं लगता

ये माना टूट कर गिरते खिज़ा में हैं बहुत पत्ते
बिना फूलों के लेकिन गुलमोहर अच्छा नहीं लगता

हमेशा पिस रहे जो लोग दौरे मुफ़लिसी में हैं
उन्ही पे टूटता अक्सर क़हर अच्छा नहीं लगता

तमन्ना चाँद की सबको हमेशा ही हुआ करती
दुआएँ हो गई हों बेअसर अच्छा नहीं लगता

ये माना रौशनी सबको मयस्सर हो नहीं पाती
किसी घर मे अँधेरा हो मगर अच्छा नहीं लगता

तबाही हों मचाते देश में आतंकवादी जब
निकलना तब घरों से सज सँवर अच्छा नहीं लगता