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जहान-ए-दिल में सन्नाटा बहुत है / ताबिश मेहदी
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जहान-ए-दिल में सन्नाटा बहुत है
समंदर आज कल प्यासा बहुत है
ये माना वो शजर सूखा बहुत है
मगर उस में अभी साया बहुत है
फ़रिश्तों में भी जिस के तज़किरे हैं
वो तेरे शहर में रुसवा बहुत है
ब-ज़ाहिर पुर-सुकूँ है सारी बस्ती
मगर अंदर से हँगामा बहुत है
उसे अब भूल जाना चाहता हूँ
कभी मैं ने जिसे चाहा बहुत है
वो पत्थर क्या किसी के काम आता
मगर सब ने उसे पूजा बहुत है
मेरा घर तो उजड़ जाएगा लेकिन
तुम्हारे घर को भी ख़तरा बहुत है
मेरा दुश्मन मेरे अशआर सुन कर
न जाने आज क्यूँ रोया बहुत है