ज़फ़र / अरुण देव
उस कंधे पर अतीत का वैभव था
अब वह एक बोझ था
झुक गए थे कंधे
विरासत की महानता भारी होती है
ढहती सल्तनत के बेरंग तख़्त पर बैठ
ज़फ़र लिखने लगा था कविता
वह फकीराना बादशाह क्या करता शासन के उस गद्य का
उसकी कविता निर्मल बहती प्रेम और करुणा के बीच
जिस पर कभी-कभी उतर आते तसव्वुफ़ के श्वेत हंस
कविता के बाहर कड़ी धूप थी
चमक रहा था पश्चिम का सूर्य
बिगड़ने लगा था दिल्ली का रंगों-रूप
क्या करते ज़ौक़, क्या हो सकता था ग़ालिब से
उस आँच की तपिश से सुलगने लगी थी दिल्ली
वह आग जो
उठ रही थी मेरठ, लखनऊ, झाँसी, कानपुर, बरेली, जगदीशपुर से
शहंशाह-ए-हिंदुस्तान
लाल किले के बाहर खड़ा था वसंत की अगवानी में
इस दुखांत महाकाव्य के अंतिम सर्ग में खड़ा वह
कितना बादशाह था कितना कवि कहना मुश्किल है
ख़िज़ा के बाद चमन में गर्दो–गुबार था
यार की गली से दूर
इंतज़ार और आरजू में कट रही थी उसकी उम्र
थी तो अब शायरी थी
नूर की तरह चमकती हुई
उसके ही कुए–यार में।